Movie Review | The Storyteller: सत्यजित राय की कहानी ‘गल्पो बोलिये तरिणी खुरो’ पर आधारित अनंत महादेवन की फ़िल्म द स्टोरीटेलर (2025) असली मेहनत और पूँजीवाद के बीच के संघर्ष को दिखाती, इस फिल्म के सभी पहलुओं को ईमानदारी के साथ हमने रखने का प्रयास किया है।
इस आर्टिकल को आप आगे पढ़ें, उसके पहले मैं बता दूं कि, ‘महाराष्ट्र के मुंबई की रहने वाली कल्पना पांडे ने मुझसे संपर्क कर इस मूवी की समीक्षा और हमारे विचार जानने की कोशिश की। मैं इस फिल्म को स्पांसर्ड नही कर रहा हूँ। लेकिन यह जरूर कहूंगा कि, “The Storyteller” जैसी फिल्में बनाने का लोग जोखिम उठा रहे है यह अपने आप मे बहुत बड़ी बात है।
पहले तो कल्पना पांडे द्वारा लिखा गया, मुख्य टाइटल पढ़कर मुझे लगा कि, यह फिल्म 1998 में आई नाना पाटेकर और माधुरी दीक्षित अभिनीत फिल्म “वजूद‘ का रीमिक्स है। लेकिन ऐसा कुछ नही है।
चूंकि, कल्पना जी ने मूवी की पूरी कहानी ही चरणबद्ध रूप से लिख दी, जिसका परिणाम है कि हम इस मूवी का सार आपके सामने बड़ी आसानी से रख रहे है।
इस दौर में “The Storyteller” जैसी फिल्में बन रही है यह अपने आप मे एक आश्चर्य!
इस वक्त में इस विषय पर बोलना बड़ी बात है और यहां तो पूरी फिल्म ही बन गई, और मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि, “The Storyteller” जो मेहनत और पूंजीवाद के बीच जंग को दिखा रही है। यह फिल्म बंगाल और गुजरात की संस्कृति को भी दिखा रही है। खैर आगे बढ़ते है और इस फिल्म की कहानी पर आते है..
जाने, The Storyteller की कहानी
इस फिल्म की कहानी दो मुख्य किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है:
- तारिणी बंद्योपाध्याय (परेश रावल): एक वृद्ध बंगाली कहानीकार, जिनके विचार साम्यवादी झुकाव लिए हुए हैं।
- रतन गरोडिया (अदिल हुसैन): एक धनी गुजराती व्यापारी, जिसे अनिद्रा की समस्या है।
रतन, तारिणी को कहानियाँ सुनाने के लिए नौकरी पर रखता है। लेकिन धीरे-धीरे रतन की असली मंशा सामने आती है—वह तारिणी की मौखिक कहानियों को चोरी करके “गुज्जू गोर्की” के नाम से प्रकाशित करता है और मशहूर हो जाता है। यह घटना पूँजीवाद द्वारा रचनात्मकता के शोषण का एक स्पष्ट उदाहरण है।
कला बनाम पूंजीवाद
फिल्म में कोलकाता की बंगाली साहित्यिक परंपरा और अहमदाबाद के पूँजीवादी माहौल की तुलना की गई है। कोलकाता में कहानियाँ सामूहिक धरोहर हैं, जबकि अहमदाबाद में उन्हें बाज़ार का उत्पाद बना दिया जाता है।
रूपकों का प्रयोग
फिल्म में एक बिल्ली का रूपक बहुत खास है:
- बिल्ली को मजबूरन शाकाहारी भोजन दिया जाता है, लेकिन वह मौका मिलते ही मछली चुरा लेती है।
- यह संघर्ष तारिणी की स्थिति को दर्शाता है, जो अपनी कला को स्वतंत्र रखना चाहता है लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था उसे दबाने की कोशिश करती है।
महिला पात्रों की भूमिका
फिल्म में महिला किरदार स्वतंत्र और सशक्त दिखाए गए हैं:
- सरस्वती (रेवती): एक बुद्धिमान महिला जो सिद्धांतों पर अडिग रहती है।
- सूजी (तनिष्ठा चटर्जी): आत्मविश्वासी लाइब्रेरियन, जो दुनिया को अपने नजरिए से देखती है।
सिनेमेटोग्राफी और निर्देशन
अल्फोंस रॉय की सिनेमेटोग्राफी और महादेवन का निर्देशन फिल्म को गहराई और सांस्कृतिक समृद्धि प्रदान करता है। कोलकाता और अहमदाबाद के दृश्यों का उपयोग फिल्म की थीम को और मजबूत करता है।
अदाकारी
- परेश रावल: तारिणी के रूप में बेहतरीन अभिनय करते हैं।
- अदिल हुसैन: एक असुरक्षित पूंजीपति की भूमिका को प्रभावी ढंग से निभाते हैं।
यह फिल्म किसे देखनी चाहिए और क्यों?
‘द स्टोरीटेलर’ (The Storyteller) उन दर्शकों के लिए एक बेहतरीन अनुभव है, जो गंभीर सिनेमा को पसंद करते हैं और कला तथा पूँजीवाद के बीच के संघर्ष को समझना चाहते हैं। यह फ़िल्म विशेष रूप से उन लोगों के लिए उपयुक्त है:
- सिनेमा प्रेमियों के लिए: यदि आप सिनेमा को केवल मनोरंजन के साधन से अधिक मानते हैं और गहराई से सोचने वाली फ़िल्में पसंद करते हैं, तो यह फ़िल्म आपके लिए है।
- कला और साहित्य प्रेमियों के लिए: यदि आप रचनात्मकता और उसके शोषण को लेकर संवेदनशील हैं, तो यह फ़िल्म आपको प्रभावित करेगी।
- समाज और व्यवस्था को समझने वालों के लिए: जो लोग पूँजीवाद और श्रमिक वर्ग की स्थितियों पर विचार करना पसंद करते हैं, उन्हें यह फ़िल्म एक नया दृष्टिकोण देगी।
- सत्यजीत राय के प्रशंसकों के लिए: उनकी कहानियों और विचारों को परदे पर जीवंत होते देखना किसी भी राय प्रेमी के लिए एक अद्भुत अनुभव होगा।
- अभिनय और निर्देशन के शौकीनों के लिए: परेश रावल, आदिल हुसैन, और रेवती जैसे अनुभवी कलाकारों के शानदार प्रदर्शन के लिए भी यह फ़िल्म देखी जानी चाहिए।
इस फ़िल्म का धीमा, लेकिन अर्थपूर्ण नैरेटिव आज के तेज़ गति वाले सिनेमा से अलग है और इसे देखने का असली आनंद लेने के लिए दर्शकों को धैर्य और संवेदनशीलता की जरूरत होगी। ‘द स्टोरीटेलर’ (The Storyteller) केवल एक कहानी नहीं सुनाती, बल्कि हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या रचनात्मकता का मूल्य केवल बाज़ार में तय किया जा सकता है, या इसका महत्व इससे कहीं अधिक है?
निष्कर्ष
द स्टोरीटेलर सिर्फ़ (The Storyteller) एक मनोरंजन की फ़िल्म नहीं है, बल्कि यह पूँजीवाद और रचनात्मकता के संघर्ष की कहानी को न सिर्फ गहराई तक लेकर जाती है, बल्कि फ़िल्म दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है कि असली कहानी पर हक़ किसका होता है।
यह मूवी यह बताती है कि, गरीब ही सही लेकिन वह कलाकार तो है। वक्त पड़ने पर यह कलाकार अपनी कला के शोषण के खिलाफ़ आवाज बुलंद कर लड़ सकता है, वह भी एक पूंजीपति से।
रेटिंग: ⭐⭐⭐⭐⭐ (5/5)