ट्रंप का घिनौना फैसला: लश्कर-ए-तैयबा के पूर्व आतंकी और कट्टरपंथी को व्हाइट हाउस एडवाइजरी बोर्ड में दी जगह

डोनाल्ड ट्रंप ने एक बार फिर अपनी अक्लमंदी (!) का परिचय देते हुए ऐसा फैसला लिया है, जिसने न केवल अमेरिका की साख को दांव पर लगा दिया, बल्कि भारत जैसे आतंकवाद से त्रस्त देशों के जख्मों को कुरेदने का काम किया है।

व्हाइट हाउस के ले लीडर्स एडवाइजरी बोर्ड में इस्माइल रॉयर और शेख हमजा यूसुफ जैसे व्यक्तियों की नियुक्ति किसी बुरे सपने से कम नहीं है। रॉयर, जो कभी लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) के आतंकी शिविरों में हथियार चलाना सीख रहा था, और यूसुफ, जिस पर मुस्लिम ब्रदरहुड और हमास जैसे संगठनों से संबंधों के गंभीर आरोप हैं, अब व्हाइट हाउस में सलाहकार की भूमिका में होंगे। यह फैसला न केवल शर्मनाक है, बल्कि आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई पर एक जोरदार तमाचा है।

इस्माइल रॉयर: आतंक का चेहरा, अब व्हाइट हाउस में सलाहकार?

इस्माइल रॉयर, जिसका असली नाम रैंडल टॉड रॉयर था, ने 1992 में इस्लाम कबूल किया और जल्द ही कट्टरपंथ के रास्ते पर चल पड़ा। 2000 में वह पाकिस्तान में लश्कर-ए-तैयबा के प्रशिक्षण शिविर में पहुंचा, जहां उसने न केवल हथियार चलाने की ट्रेनिंग ली, बल्कि कश्मीर में भारतीय सेना की चौकियों पर गोलीबारी भी की।

यह वही लश्कर-ए-तैयबा है, जिसने 2001 में भारतीय संसद पर हमला किया और 2008 में मुंबई में 166 लोगों की जान लेने वाले आतंकी हमले को अंजाम दिया। रॉयर पर 2003 में अमेरिका के खिलाफ युद्ध की साजिश, लश्कर और अल-कायदा को सामग्री सहायता, और अवैध हथियारों के उपयोग जैसे संगीन आरोप लगे।

2004 में उसने हथियारों और विस्फोटकों के इस्तेमाल में सहायता के अपराध कबूल किए, जिसके लिए उसे 20 साल की सजा मिली। 13 साल जेल में बिताने के बाद वह 2016 में रिहा हुआ।

अब रॉयर रिलीजियस फ्रीडम इंस्टीट्यूट में इस्लाम और धार्मिक स्वतंत्रता एक्शन टीम का निदेशक बनकर अपने “सुधार” की कहानी बेच रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या एक आतंकी संगठन से जुड़ा व्यक्ति इतनी आसानी से अपनी विचारधारा बदल सकता है? और अगर बदल भी लिया, तो क्या उसे व्हाइट हाउस जैसे संवेदनशील मंच पर जगह देना जायज है?

ट्रंप प्रशासन का यह दावा कि रॉयर का अनुभव धार्मिक स्वतंत्रता के लिए “मूल्यवान” है, हास्यास्पद और खतरनाक है। यह वैसा ही है जैसे किसी सांप को दूध पिलाकर उसे पालतू बनाने की कोशिश की जाए।

शेख हमजा यूसुफ: कट्टरपंथ का दूसरा चेहरा

शेख हमजा यूसुफ, जैतुना कॉलेज के सह-संस्थापक और इस्लामिक स्टडीज के विद्वान, को भी इस बोर्ड में शामिल किया गया है। लेकिन उनके चमकदार अकादमिक रिकॉर्ड के पीछे एक काला सच छिपा है।

अमेरिकी पत्रकार लॉरा लूमर ने खुलासा किया है कि यूसुफ का संबंध मुस्लिम ब्रदरहुड और हमास जैसे संगठनों से रहा है। 9/11 हमले से पहले यूसुफ ने जमील अल-अमीन के लिए एक फंडरेजर में हिस्सा लिया था, जो एक पुलिस अधिकारी की हत्या का दोषी ठहराया गया। यूसुफ के कुछ पुराने बयान, जिनमें उन्होंने कट्टरपंथी विचार व्यक्त किए, आज भी सोशल मीडिया पर वायरल हैं।

ऐसे व्यक्ति को व्हाइट हाउस में सलाहकार बनाना न केवल लापरवाही है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ है। ट्रंप प्रशासन की यह हरकत साबित करती है कि वह अपनी जांच प्रक्रिया में कितना ढीला-ढाला रवैया रखता है। क्या यूसुफ की अकादमिक डिग्रियां उनके कट्टरपंथी अतीत को माफ कर सकती हैं? जवाब साफ है: नहीं।

भारत के जख्मों पर नमक

लश्कर-ए-तैयबा ने भारत को बार-बार खून के आंसुओं में डुबोया है। 2001 का संसद हमला, 2008 का मुंबई हमला, और कई अन्य आतंकी कृत्य इस संगठन की क्रूरता के गवाह हैं। ऐसे में, लश्कर के पूर्व आतंकी को व्हाइट हाउस में जगह देना भारत के लिए अपमानजनक और कूटनीतिक रूप से असंवेदनशील है। भारतीय सुरक्षा विशेषज्ञों ने इस फैसले की कड़ी निंदा की है, इसे आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में एक बड़ा धोखा बताया है।

भारत ने आतंकवाद के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी है और अमेरिका को इस दर्द का अहसास होना चाहिए। लेकिन ट्रंप का यह कदम भारत-अमेरिका संबंधों पर ठंडा पानी डालने वाला है। यह फैसला न केवल भारत के बलिदानों का मखौल उड़ाता है, बल्कि उन हजारों परिवारों के दुख को भी नजरअंदाज करता है, जिन्होंने लश्कर के हमलों में अपने प्रियजनों को खोया।

ट्रंप की लापरवाही और वैश्विक आलोचना

ट्रंप प्रशासन का यह फैसला उनकी अक्षमता और गैर-जिम्मेदाराना रवैये का जीता-जागता सबूत है। व्हाइट हाउस का दावा है कि रॉयर और यूसुफ को उनकी “विशेषज्ञता” और धार्मिक स्वतंत्रता में योगदान के लिए चुना गया है। लेकिन यह तर्क इतना खोखला है कि इसे सुनकर हंसी आती है। क्या ट्रंप प्रशासन को इतने बड़े मंच के लिए कोई और योग्य व्यक्ति नहीं मिला? क्या आतंकियों और कट्टरपंथियों को ही सलाहकार बनाना जरूरी था?

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर इस मुद्दे ने तूफान मचा रखा है। अमेरिकी पत्रकार लॉरा लूमर ने इस नियुक्ति को “राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा” करार दिया है। कई यूजर्स ने ट्रंप के फैसले को “अमेरिका की साख पर धब्बा” बताया है। भारत में भी यह खबर तेजी से वायरल हो रही है, और लोग इस बात से नाराज हैं कि ट्रंप प्रशासन ने इतना संवेदनशील फैसला लेने से पहले भारत जैसे सहयोगी देश की भावनाओं का ख्याल नहीं रखा।

व्हाइट हाउस की ढीठाई

व्हाइट हाउस ने इस नियुक्ति का बचाव करते हुए कहा है कि ले लीडर्स एडवाइजरी बोर्ड का उद्देश्य धार्मिक स्वतंत्रता और आस्था-आधारित नीतियों पर सलाह देना है। लेकिन यह तर्क किसी के गले नहीं उतर रहा। रॉयर और यूसुफ जैसे व्यक्तियों को इस बोर्ड में शामिल करना वैसा ही है जैसे किसी चोर को बैंक का मैनेजर बना दिया जाए। व्हाइट हाउस की इस ढीठाई ने साबित कर दिया है कि ट्रंप प्रशासन को न तो राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता है और न ही वैश्विक सहयोग की।

क्या यह आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को कमजोर करेगा?

यह नियुक्ति आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई को कमजोर करने का काम करेगी। जब अमेरिका जैसे देश के सर्वोच्च मंच पर आतंकी संगठनों से जुड़े लोग बैठेंगे, तो यह आतंकवादियों को एक गलत संदेश देगा कि उनके अपराध माफ किए जा सकते हैं। भारत, जो आतंकवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में से एक है, इस फैसले को बर्दाश्त नहीं करेगा। भारतीय विदेश मंत्रालय को इस मुद्दे पर कड़ा रुख अपनाना चाहिए और ट्रंप प्रशासन से जवाब मांगना चाहिए।

ट्रंप की ऐतिहासिक भूल

ट्रंप एडवाइजरी बोर्ड जिहादी नियुक्ति ने साबित कर दिया है कि ट्रंप प्रशासन की प्राथमिकताएं कितनी गलत हैं। इस्माइल रॉयर और शेख हमजा यूसुफ जैसे व्यक्तियों को व्हाइट हाउस में जगह देना न केवल लापरवाही है, बल्कि आतंकवाद से प्रभावित देशों के लिए एक अपमान है। भारत, जिसने लश्कर-ए-तैयबा जैसे संगठनों से भारी नुकसान झेला है, इस फैसले को कभी स्वीकार नहीं करेगा।

ट्रंप को यह समझना होगा कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में कोई समझौता नहीं हो सकता। इस घिनौने फैसले को तुरंत वापस लिया जाना चाहिए, वरना यह ट्रंप प्रशासन की सबसे बड़ी ऐतिहासिक भूल साबित होगी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *