औरंगाबाद | दलेलचक बघौरा नरसंहार: बिहार के औरंगाबाद जिले को अक्सर ‘मिनी चित्तौड़गढ़’ कहा जाता है यहाँ के राजपूत समुदाय की वीरता और बहादुरी के किस्से मशहूर हैं। लेकिन 29 मई 1987 की वो काली रात इस इलाके के इतिहास में एक दर्दनाक घटना के तौर पर दर्ज हो गई। जब दलेलचक बघौरा नरसंहार में 54 राजपूतों की नृशंस हत्या कर दी गई। यह घटना न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे देश में जातीय हिंसा की सबसे भयावह त्रासदियों में से एक बन गई।
वो काली रात: 29 मई 1987
29 मई 1987 की शाम। औरंगाबाद जिले के मदनपुर थाना क्षेत्र के दलेलचक और बघौरा गांव में सन्नाटा पसरा हुआ था। अचानक 700 से भी ज्यादा लोगों ने हथियार लेकर गांवों को चारों तरफ से घेर लिया। उनके हाथों में बंदूकें, गड़ासे और अन्य हथियार थे। ये लोग माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (MCC) के सदस्य थे, जिन्होंने इस हमले की जिम्मेदारी ली थी ।
हमलावरों ने गांव के राजपूत परिवारों को निशाना बनाया। ढाई साल के मासूम बच्चे से लेकर 105 साल की वृद्ध महिला तक को नहीं बख्शा गया। लोगों के हाथ-पैर बांधकर पेड़ों से लटकाया गया और उनके सिर धड़ से अलग कर दिए गए। कुछ को जिंदा जला दिया गया ।
हत्याओं का कारण: छेछानी नरसंहार का बदला
इस नरसंहार की जड़ें जातीय विवाद और जमीन के झगड़े में थीं। इसकी शुरुआत रफीगंज थाने के भभका गांव में एक घटना से हुई। बंगाली सिंह के बेटे विजय की हत्या के बाद हिंसा की एक श्रृंखला शुरू हुई ।
पहले परसडीह में 7 लोग मारे गए। फिर दरमियां गांव में 11 लोगों की हत्या कर दी गई। इसके जवाब में छेछानी गांव में 7 लोगों की हत्या हुई। दलेलचक बघौरा नरसंहार इन्हीं की प्रतिक्रिया थी, जहां 7 के बदले 54 लोगों को मार डाला गया ।
नरसंहार की विध्या: क्रूरता की सारी हदें पार
गवाहों के मुताबिक, हमलावरों ने पीड़ितों के साथ अमानवीय व्यवहार किया। लोगों को घरों से बाहर निकाला, हाथ-पैर बांधे और पीपल के पेड़ों के नीचे ले जाकर उनके सिर काट दिए। कुछ को जिंदा जला दिया गया। घरों में आग लगा दी गई और परिवारों को उन्हीं के घरों में दफन कर दिया गया ।
बघौरा गांव का वह पीपल का पेड़ आज भी इस नरसंहार की गवाही देता है, जिस पर हथियारों के निशान मौजूद हैं। गांव का वह कुआं जहां लाशों को फेंका गया था, आज भी उसका पानी लालिमा लिए हुए है ।
राजनीतिक प्रतिक्रिया और सरकारी रवैया
तत्कालीन मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे की सरकार इस घटना के बाद सख्ती से हिल गई। मुख्यमंत्री समेत कई बड़े नेता और अधिकारी गांव पहुंचे। बड़ी घोषणाएं की गईं, लेकिन जमीन पर कुछ खास नहीं बदला ।
गृह मंत्री बूटा सिंह ने भी गांव का दौरा किया और पीड़ित परिवारों से मुलाकात की। सरकार ने उग्रवादियों के खिलाफ कार्रवाई का वादा किया और एक विशेष पुलिस सेल गठित करने की घोषणा की ।
न्याय की लंबी डगर
इस मामले में बघौरा निवासी सत्येंद्र कुमार सिंह के बयान पर 177 लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई। आखिरकार 8 लोगों को दोषी ठहराया गया। ऑरंगाबाद की अतिरिक्त सत्र अदालत ने दिसंबर 1992 में इन 8 आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई ।
हालांकि, बाद में पटना उच्च न्यायालय ने फांसी की सजा बरकरार रखी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे आजीवन कारावास में बदल दिया। 2011 तक सभी दोषी जेल से रिहा हो चुके थे ।
पीड़ितों का दर्द: विनय कुमार सिंह की कहानी
विनय कुमार सिंह, जिन्होंने इस मामले में मुकदमा लड़ा, अपने परिवार के 20 सदस्यों को खो चुके हैं। वे बताते हैं, “घटना के बाद तत्कालीन सरकार ने बड़े-बड़े वादे किए, लेकिन आज तक गांव में विकास की कोई किरण नहीं पहुंची। नौकरी के नाम पर सिर्फ एक सरकारी नौकरी मिली, जिससे परिवार का गुजर-बसर हो रहा है” ।
विनय आगे कहते हैं, “मैं नक्सलियों के निशाने पर हूं क्योंकि मैंने इस मुकदमे को लड़ा। सरकार ने मुझे अंगरक्षक दिए, लेकिन कुछ दिनों बाद ही वापस ले लिए। अब मैं खुद को असुरक्षित महसूस करता हूं” .
एक आरोपी का पश्चाताप: रामाश्रय पासवान
इस नरसंहार के एक आरोपी रामाश्रय पासवान ने 30 साल बाद अपने पापों का प्रायश्चित करने का फैसला किया। वह जिंदा समाधि लेना चाहते हैं। रामाश्रय इस नरसंहार में शामिल होने के आरोप में 11 महीने जेल में रह चुके हैं .
रामाश्रय बताते हैं, “मेरी पत्नी की मौत के बाद मैं बिल्कुल अकेला हो गया। मैंने अयोध्या में साधु-संतों से मुलाकात की और उन्होंने मुझे समाधि लेने की सलाह दी” .
गांव की वर्तमान स्थिति: वीरान होते घर
आज भी दलेलचक-बघौरा गांव में सन्नाटा पसरा हुआ है। ज्यादातर परिवार गांव छोड़कर जा चुके हैं। केवल कुछ ही घरों में लोग रहते हैं। गांव में बिजली, पानी और सिंचाई की कोई उचित व्यवस्था नहीं है। सड़कों की हालत खराब है .
तत्कालीन सरकारों ने विकास के जो वादे किए थे, वो आज तक पूरे नहीं हुए। स्कूल तो खोला गया, लेकिन उसका संचालन ठीक से नहीं हो रहा है। गांव वाले आज भी उस भयावह रात को याद करके सिहर उठते हैं .
ऐतिहासिक संदर्भ: बिहार में जातीय हिंसा
दलेलचक बघौरा नरसंहार बिहार में जातीय हिंसा के लंबे इतिहास का एक हिस्सा है। 1980 और 1990 का दशक बिहार में जातीय संघर्ष का सबसे खूनी दौर रहा। इस दौरान विभिन्न जाति समूहों के बीच भूमि और राजनीतिक वर्चस्व को लेकर खूनी संघर्ष हुए .
इन हिंसक घटनाओं ने बिहार की राजनीति को गहराई से प्रभावित किया। जातिगत समीकरणों ने राजनीतिक दलों की रणनीति तय की और मतदाताओं के वोटिंग पैटर्न को प्रभावित किया।
अनसुलझे सवाल और सबक
दलेलचक बघौरा नरसंहार आज भी कई सवाल छोड़ गया है। क्या यह सच में जातीय हिंसा थी या फिर जमीन और सत्ता के लिए लड़ाई? क्यों पीड़ित परिवारों को आज तक इंसाफ नहीं मिला? क्यों सरकारें वादे पूरे करने में नाकाम रहीं?
इस दलेलचक बघौरा नरसंहार से सबक लेने की जरूरत है। हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं है। जाति और वर्ग के नाम पर होने वाली हिंसा समाज को तोड़ती है और मानवता को शर्मसार करती है।
दलेलचक-बघौरा की इस त्रासदी को 35 साल से ज्यादा समय बीत चुका है, लेकिन पीड़ित परिवार आज भी इंसाफ की राह देख रहे हैं। यह घटना हमें याद दिलाती है कि इंसानियत किसी जाति या वर्ग से ऊपर होती है।
(यह लेख ऐतिहासिक दस्तावेजों, अखबारी रिपोर्ट्स और पीड़ितों से बातचीत पर आधारित है।)
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