पंचकूला की चीखें और सोई हुई व्यवस्था: कर्ज, महंगाई और सरकारी उदासीनता के बीच दम तोड़ता आम आदमी – जिम्मेदार कौन?

पंचकूला की उस मनहूस सोमवार की रात, जब शहर अपनी दिनभर की थकान उतारकर सपनों की दुनिया में खोने की तैयारी कर रहा था, सेक्टर 27 की एक शांत गली में खड़ी एक बेबस हुंडई ऑरा गाड़ी मौत की खामोश पालकी बन गई। उस ठंडी, स्याह गाड़ी के अंदर सात सांसें हमेशा के लिए थम गईं – प्रवीण मित्तल, उनकी पत्नी रीना, उनकी बुजुर्ग माँ विमला, पिता देशराज, और तीन बच्चे, जिनमें 11 साल की दो मासूम जुड़वां कलियाँ, हिमशिखा और दलिशा, और 14 साल का बेटा हार्दिक भी शामिल थे। एक पूरा परिवार, कर्ज के असहनीय बोझ और निराशा के अथाह सागर में डूबकर, जहरीले अंधेरे में विलीन हो गया। प्रवीण के आखिरी शब्द, जो एक कांपती हुई आवाज में और दो पन्नों के सुसाइड नोट में दर्ज हुए, “मैं बैंकरप्ट हो चुका हूं…”, सिर्फ एक व्यक्ति की हार नहीं, बल्कि एक पूरे तंत्र की विफलता का क्रूर दस्तावेज़ हैं।

यह कोई इक्का-दुक्का घटना नहीं, जिसे पढ़कर या सुनकर कुछ देर अफसोस जताया और फिर भुला दिया जाए। यह उन लाखों अनसुनी चीखों की एक प्रतिनिधि गूंज है जो आज के “विकासशील” भारत में कर्ज के जानलेवा फंदे, कमरतोड़ महंगाई, और आसमान छूती बेरोजगारी के तले हर रोज दब रही हैं। यह उस आम आदमी की बेबसी का चरम है जो अपनी छोटी-छोटी खुशियों और दो वक्त की रोटी के लिए दिन-रात पिसता है, और जब हर तरफ से रास्ते बंद हो जाते हैं, तो मौत को गले लगा लेना ही उसे एकमात्र “समाधान” नजर आता है। इस सामूहिक आत्महत्या की जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या सिर्फ प्रवीण मित्तल, या वह समाज और वह सरकार भी जो अपने नागरिकों को जीवन का भरोसा देने में नाकाम रही?

सपनों का टूटना और कर्ज का मकड़जाल

प्रवीण मित्तल की कहानी उस हर भारतीय की कहानी हो सकती है जो बेहतर भविष्य के सपने देखता है, उद्यमी बनने का साहस करता है, लेकिन व्यवस्था के निर्मम पहियों के नीचे कुचल जाता है। हिसार से पंचकूला, फिर देहरादून में टूर एंड ट्रैवल्स का कारोबार – एक उम्मीद की उड़ान भरने की कोशिश। लेकिन व्यापार में घाटा, लगभग दस साल पहले लिया गया एक करोड़ का कर्ज जो कथित तौर पर बीस करोड़ के भयावह आंकड़े तक पहुंच गया, और फिर जान से मारने की धमकियां। अंततः, एक टैक्सी ड्राइवर के रूप में जीवनयापन की जद्दोजहद। क्या यह सिर्फ एक व्यक्ति की असफलता है? या यह उस आर्थिक माहौल का प्रतिबिंब है जहां छोटे और मध्यम उद्यमियों के लिए टिके रहना ही एक चुनौती है, जहां बैंक और वित्तीय संस्थान बड़े कर्जदारों पर मेहरबान रहते हैं, लेकिन एक आम आदमी कर्ज के जाल में फंसकर तिल-तिल मरने को मजबूर हो जाता है?

परिवार ने बागेश्वर धाम के बाबा धीरेंद्र शास्त्री की कथा में शायद निराशा के इस अंधकार में उम्मीद की कोई किरण तलाशने की कोशिश की होगी, कोई दैवीय हस्तक्षेप की आस लगाई होगी। लेकिन जब हर दरवाजा बंद नजर आया, जब दुनियावी और शायद आसमानी, दोनों सहारे छूट गए, तो उस गाड़ी में बैठे सात लोगों ने एक साथ मौत को चुन लिया। यह एक सामूहिक पलायन था – उस व्यवस्था से, उस समाज से, जो उन्हें सुरक्षा और सम्मान का जीवन नहीं दे सका।

सरकारी मदद या मृगतृष्णा का खेल? “विश्व गुरु” भारत का विरोधाभास

आज जब भारत दुनिया की चौथी या पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के “गौरवशाली” आंकड़े पेश करता है, जब “विश्व गुरु” बनने के दावे किए जाते हैं, तो यह सवाल और भी चुभता है कि इस विकास की चकाचौंध आम आदमी की जिंदगी के अंधेरे को क्यों नहीं मिटा पा रही? प्रवीण जैसे हजारों-लाखों लोग जब कर्ज के बोझ तले दबते हैं, जब उनका व्यापार ठप हो जाता है, जब बेरोजगारी उन्हें निगलने को तैयार रहती है, तो सरकारी मदद के वादे और योजनाएं एक मृगतृष्णा क्यों साबित होती हैं?

क्या हमारी सामाजिक सुरक्षा प्रणालियाँ इतनी पंगु और जटिल हैं कि वे सही समय पर सही व्यक्ति तक पहुँच ही नहीं पातीं? या उनकी प्राथमिकता सूची में प्रवीण मित्तल जैसे संघर्षरत उद्यमी और उनके परिवार आते ही नहीं? यह वह “सोई हुई व्यवस्था” है जो बड़े आर्थिक संकेतकों के जश्न में इतनी मशगूल है कि उसे अपने ही नागरिकों की टूटती सांसों की आवाज सुनाई नहीं देती।

महंगाई की मार, बेरोजगारी का दंश और टूटते सपने

जीवनशैली महंगी होती जा रही है, यह एक घिसा-पिटा वाक्य लग सकता है, लेकिन इसकी मार झेलने वाला ही इसका दर्द जानता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, मकान का किराया, और दो वक्त की रोटी – हर बुनियादी जरूरत आज विलासिता की ओर बढ़ रही है। महंगाई डायन बनकर आम आदमी की कमर तोड़ रही है। दूसरी ओर, बेरोजगारी का दानव युवाओं के सपनों को निगल रहा है। करोड़ों शिक्षित युवा नौकरियों के लिए भटक रहे हैं, और जिन्हें कुछ काम मिल भी रहा है, वह अक्सर उनकी योग्यता और अपेक्षाओं से बहुत कम होता है, जिससे वे कुंठा और निराशा में डूब जाते हैं।

ऐसे हालातों में, यदि कोई व्यक्ति आर्थिक संकट में फंसता है, तो उसके लिए सामाजिक और सरकारी समर्थन के अभाव में उबरना लगभग नामुमकिन सा हो जाता है। क्या यह हमारी सरकारों की प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए कि वे एक ऐसा आर्थिक वातावरण बनाएं जहां रोजगार के अवसर हों, महंगाई नियंत्रण में रहे, और कोई भी नागरिक कर्ज के कारण आत्महत्या करने पर मजबूर न हो?

78 साल की आजादी और भूख की गुलामी: एक शर्मनाक हकीकत

यह एक ऐसी सच्चाई है जो किसी भी संवेदनशील इंसान को झकझोर कर रख देगी: आजादी के 78 सालों बाद भी, जब हम अंतरिक्ष में अपनी उपलब्धियों का बखान करते हैं, तब भी हमारे देश की एक बड़ी आबादी (सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 80 करोड़ लोग) आज भी अपने पेट की आग बुझाने के लिए मुफ्त सरकारी अनाज पर निर्भर है। झारखंड की 11 वर्षीय संतोषी कुमारी की 2017 में “भात-भात” कहते हुए भूख से मौत की घटना हमारे तथाकथित विकास के दावों पर एक तमाचा है। यह कोई अकेली घटना नहीं थी। कुपोषण और भुखमरी आज भी हमारे समाज के माथे पर कलंक हैं।

जब देश की इतनी बड़ी आबादी सिर्फ जिंदा रहने के लिए संघर्ष कर रही हो, तो GDP के आंकड़े, अर्थव्यवस्था की रैंकिंग, और विकास के बड़े-बड़े दावे बेमानी और क्रूर मजाक से ज्यादा कुछ नहीं लगते।

जापान, चीन और भारत: जनसंख्या का सच और सरकारों की नियत

अक्सर कहा जाता है कि भारत की विशाल जनसंख्या ही उसकी कई समस्याओं की जड़ है। लेकिन क्या यह पूरा सच है? जापान, जिसने परमाणु हमले और अनगिनत प्राकृतिक आपदाएं झेलीं, वह अपनी छोटी सी आबादी और सीमित संसाधनों के बावजूद आज जीवन स्तर, प्रति व्यक्ति आय और तकनीकी उन्नति में दुनिया के शीर्ष देशों में है। चीन, जिसकी आबादी भारत के लगभग बराबर है, उसने अपनी नीतियों और कार्यान्वयन के दम पर करोड़ों लोगों को गरीबी से बाहर निकाला है और अपनी प्रति व्यक्ति आय को भारत से कई गुना बेहतर किया है।

यह दिखाता है कि केवल जनसंख्या ही विकास का पैमाना या बाधा नहीं है। असली फर्क पड़ता है दूरदर्शी और जन-केंद्रित नीतियों से, उनके प्रभावी कार्यान्वयन से, और सबसे बढ़कर, सरकार की नीयत से। क्या भारतीय सरकारें अपनी विशाल मानव संपदा को, अपने “जनसांख्यिकीय लाभांश” को, एक वास्तविक ताकत में बदलने में उतनी सफल हो पाई हैं जितनी उन्हें होना चाहिए था? या यह आबादी उनके लिए सिर्फ वोटों का एक आंकड़ा बनकर रह गई है?

निष्कर्ष: जब तक व्यवस्था नहीं जागेगी, चीखें अनसुनी रहेंगी

प्रवीण मित्तल और उनके परिवार की सामूहिक आत्महत्या सिर्फ एक खबर नहीं, यह हमारे समाज और हमारी व्यवस्था के लिए एक खतरे की घंटी है, एक आईना है जिसमें हमें अपनी सामूहिक विफलता का वीभत्स चेहरा देखना चाहिए। सुसाइड नोट में प्रवीण ने लिखा, “मेरी वजह से ही ये सब कुछ हुआ है।” लेकिन क्या यह सच है? क्या एक व्यक्ति को उसकी परिस्थितियों के लिए इतना अकेला और बेबस छोड़ देना चाहिए कि वह अपने पूरे परिवार के साथ मौत को गले लगा ले?

नहीं, यह केवल प्रवीण की हार नहीं थी। यह हार है उस समाज की जो सफलता को पूजता है और विफलता में साथ छोड़ देता है। यह हार है उन वित्तीय संस्थानों की जो कर्ज देते समय तो मीठे सपने दिखाते हैं, पर संकट में अमानवीय हो जाते हैं। और यह सबसे बड़ी हार है उस सरकार और उस व्यवस्था की, जिसका पहला कर्तव्य अपने हर नागरिक को सुरक्षा, सम्मान और जीवन का अवसर प्रदान करना है।

जब तक हमारी प्राथमिकताएं नहीं बदलेंगी, जब तक आर्थिक विकास का पैमाना GDP के आंकड़ों के बजाय आम आदमी की खुशहाली और जीवन स्तर नहीं बनेगा, जब तक सरकारी मदद और सामाजिक सुरक्षा योजनाएं हर जरूरतमंद तक समय पर और सम्मान के साथ नहीं पहुंचेंगी, तब तक पंचकूला जैसी चीखें उठती रहेंगी, और सोई हुई व्यवस्था के कानों तक शायद ही पहुंच पाएंगी। यह सवाल आज हर भारतीय को खुद से और अपनी चुनी हुई सरकारों से पूछना होगा – आखिर इन अनगिनत मौतों का जिम्मेदार कौन है, और हम कब तक इन मानवीय त्रासदियों को केवल मूक दर्शक बनकर देखते रहेंगे?

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