जब अन्नदाता बैल बनकर हल जोते, तब कहाँ सो रही थी सरकार?
मदर इंडिया फिल्म की रिलीज के 68 साल बाद भी यह दृश्य भारत मे दिखाई दे रहा है। महाराष्ट्र में अन्नदाता बैल बनकर हल जोत रहे है उधर सरकार जीडीपी और विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बताकर गाल बजाते हुए खुद ही अपनी पीठ थपथपा रही हैं।
लातूर में 75 वर्षीय किसान दंपति ने बैल बनकर खेत जोता, क्योंकि सरकार की योजनाएं कागजों तक सिमटी हैं। यह वायरल वीडियो देश की बदहाल कृषि व्यवस्था और सरकार की उदासीनता को बेनकाब करता है। पढ़ें, कैसे अन्नदाता की मजबूरी सिस्टम पर सवाल उठा रही है।
लातूर, महाराष्ट्र 02 जुलाई: एक तस्वीर, एक वीडियो, और एक ऐसी सच्चाई जो देश के हर नागरिक के सीने को चीर दे। महाराष्ट्र के लातूर जिले के हाडोलती गांव में 75 वर्षीय अंबादास पवार और उनकी पत्नी मुक्ताबाई पवार की हल खींचते हुए तस्वीरें सोशल मीडिया पर तूफान की तरह फैल रही हैं। यह कोई साधारण वीडियो नहीं है—यह उस सिस्टम की क्रूर सच्चाई है, जो अन्नदाता को बैल बनने पर मजबूर कर रहा है। सवाल यह है कि जब देश का किसान इस कदर तड़प रहा है, तब केंद्र और राज्य सरकारें कहाँ हैं? क्या विकास के ढोल पीटने वाली यह सरकार अन्नदाता की इस हालत के लिए जवाबदेह नहीं है?
मजबूरी की तस्वीर: अन्नदाता का अपमान
अंबादास और मुक्ताबाई, जिनकी उम्र अब आराम करने की है, वे अपने 2.5 एकड़ सूखे खेत में हल खींच रहे हैं। क्यों? क्योंकि उनके पास न बैल खरीदने के पैसे हैं, न मजदूरों को किराए पर लेने की क्षमता, और न ही ट्रैक्टर किराए पर लेने के लिए 2,500 रुपये प्रतिदिन। पिछले साल सूखे और बेमौसम बारिश ने उनकी फसल तबाह कर दी, और सरकारी सहायता? वह तो बस नेताओं के भाषणों और कागजों तक सिमटकर रह गई। अंबादास की थकी हुई आवाज में दर्द साफ सुनाई देता है: “मेरी बाहें कांपती हैं, पैर जवाब दे जाते हैं, लेकिन ज़िंदगी ने हमें कोई रास्ता नहीं छोड़ा।” यह सिर्फ एक किसान की कहानी नहीं, बल्कि देश की उस बदहाल व्यवस्था की सच्चाई है, जो किसानों को जीते-जी मार रही है।
सिस्टम की नाकामी: कागजी योजनाओं का ढोंग
केंद्र और राज्य सरकारें हर साल किसानों के लिए नई-नई योजनाओं का ऐलान करती हैं। कर्जमाफी, फसल बीमा, सस्ते ऋण, और सब्सिडी पर उपकरण—ये सब सुनने में अच्छे लगते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत क्या है? लातूर जैसे सूखा प्रभावित मराठवाड़ा क्षेत्र में ये योजनाएं धरातल पर कहीं नजर नहीं आतीं। अंबादास जैसे छोटे किसानों को न तो कर्जमाफी का लाभ मिला, न ही फसल बीमा का मुआवजा, और न ही कोई सरकारी मदद। सवाल उठता है—क्या ये योजनाएं सिर्फ वोट बैंक की राजनीति के लिए हैं? जब अन्नदाता बैल बनकर खेत जोत रहा हो, तब क्या सरकार का “विकसित भारत” का नारा खोखला नहीं लगता?
मराठवाड़ा: सूखे और आत्महत्याओं का कब्रिस्तान
मराठवाड़ा का नाम सुनते ही सूखे और किसानों की आत्महत्याओं की तस्वीरें जेहन में उभरती हैं। पिछले कुछ सालों में इस क्षेत्र में हजारों किसानों ने आर्थिक तंगी के कारण आत्महत्या की है। 2024 में ही मराठवाड़ा में सैकड़ों किसानों ने अपनी जान गंवाई, लेकिन क्या सरकार ने इस संकट को गंभीरता से लिया? अंबादास और मुक्ताबाई की कहानी इस क्षेत्र की उस त्रासदी का जीवंत प्रमाण है, जहां किसान न सिर्फ प्रकृति से, बल्कि सिस्टम की उदासीनता से भी लड़ रहा है। सिंचाई सुविधाओं का अभाव, बैंकों की सख्ती, और सरकारी लापरवाही ने किसानों को इस कदर मजबूर कर दिया है कि वे अपनी इज्जत और मेहनत को हल में जोतने को मजबूर हैं।
सोशल मीडिया की चीख: जनता का गुस्सा
जब यह वीडियो X पर वायरल हुआ, तो देश की जनता का गुस्सा फूट पड़ा। एक यूजर ने लिखा, “जब अन्नदाता बैल बन जाए, तो समझ लीजिए कि देश का सिस्टम मर चुका है।” एक अन्य ने सवाल उठाया, “क्या यही है सरकार का ‘अमृतकाल’? जहां किसान हल खींचने को मजबूर हो?” लोगों ने इस घटना को विकास के दावों पर एक करारा तमाचा बताया। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह गुस्सा और सहानुभूति अंबादास जैसे किसानों की जिंदगी बदल पाएगी? या फिर यह भी कुछ दिनों में सोशल मीडिया की भीड़ में दबकर रह जाएगा?
पहले भी दिखी ऐसी तस्वीरें, फिर भी सबक नहीं
यह कोई पहला मामला नहीं है। 2016 में जलगांव के विठोबा मांडोले ने खाट से खेत जोता। 2017 में यूपी के बिजनौर में दिव्यांग सीताराम ने भैंस के साथ हल खींचा। 2020 में छिंदवाड़ा के जयदेव दास ने अपने बेटों को हल में जोता। हर बार ऐसी तस्वीरें सामने आती हैं, सोशल मीडिया पर हंगामा होता है, लेकिन सिस्टम में कोई बदलाव नहीं आता। क्या सरकार को इन तस्वीरों से शर्मिंदगी नहीं होती? क्या यह देश के लिए शर्म का विषय नहीं कि जो किसान देश को अन्न देता है, उसे बैल बनने पर मजबूर होना पड़ रहा है?
सवाल जो सरकार से पूछे जाने चाहिए
- अंबादास जैसे किसानों को सरकारी योजनाओं का लाभ क्यों नहीं मिल रहा?
- मराठवाड़ा में सिंचाई सुविधाओं के लिए अब तक क्या कदम उठाए गए?
- कर्जमाफी और फसल बीमा योजनाएं कागजों पर ही क्यों सिमटकर रह जाती हैं?
- क्या सरकार के पास छोटे और सीमांत किसानों के लिए कोई ठोस नीति है?
- जब अन्नदाता इस कदर तड़प रहा हो, तब “विकसित भारत” का नारा कितना सच है?
आवाज उठाएं, वरना सिस्टम नहीं बदलेगा
अंबादास और मुक्ताबाई की यह कहानी सिर्फ एक किसान दंपति की नहीं, बल्कि देश के उन लाखों किसानों की है, जो सिस्टम की मार झेल रहे हैं। यह वीडियो हमें झकझोरता है, हमें सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर कब तक अन्नदाता की इस मजबूरी को अनदेखा किया जाएगा? अगर आज हम चुप रहे, तो कल फिर कोई अंबादास बैल बनकर हल खींचता नजर आएगा। सरकार को कटघरे में खड़ा करने का समय है। हमें मिलकर आवाज उठानी होगी—सोशल मीडिया पर, सड़कों पर, और हर उस मंच पर जहां यह सवाल गूंज सके कि आखिर अन्नदाता की इस हालत का जिम्मेदार कौन है?
अगर यह तस्वीर आपको भी बेचैन कर रही है, तो अपनी आवाज उठाएं। सोशल मीडिया पर इस मुद्दे को और वायरल करें, सरकार से सवाल पूछें, और अंबादास जैसे किसानों के लिए सहायता की मांग करें। क्योंकि जब तक हम चुप रहेंगे, सिस्टम का यह क्रूर खेल चलता रहेगा।