कानपुर फर्टिलाइजर प्लांट: चांद छाप यूरिया का हुआ अंत! (1967 To 2025)

कानपुर फर्टिलाइजर प्लांट के दम पर औद्योगिक नगरी की उम्मीद चकनाचूर!

कानपुर, 6 अप्रैल 2025: कभी ‘एशिया का मैनचेस्टर’ कहलाने वाला उत्तर प्रदेश का कानपुर शहर “कानपुर फर्टिलाइजर प्लांट” के बंद होने की घोषणा से स्तब्ध है। जेपी एसोसिएट्स ग्रुप द्वारा संचालित कानपुर फर्टिलाइजर एंड केमिकल्स लिमिटेड (केएफसीएल) के पनकी प्लांट पर ताला लग गया है।

यह वही प्लांट है, जो चांद छाप यूरिया के रूप में किसानों की उम्मीद और मजदूरों की रोजी-रोटी का आधार था। लेकिन गैस आपूर्ति की कटौती, बिजली संकट और सब्सिडी की कमी ने इसकी सांसें थाम दीं। 7000 से ज्यादा परिवारों के सामने रोजगार का संकट है, और एक शहर का सपना फिर धूमिल हो गया।

कानपुर फर्टिलाइजर प्लांट के दम पर औद्योगिक नगरी की उम्मीद चकनाचूर!

गंगा के तट पर बसा कानपुर, जो कभी सूती मिलों और चमड़ा उद्योग के लिए मशहूर था, अब जर्जर बुनियादी ढांचे और बंद मिलों की मार झेल रहा है। केएफसीएल के आने से यह “फर्टिलाइजर सेक्टर” में भी पहचान बना रहा था, लेकिन अब यह उम्मीद टूट गई।

1967 से 2025 तक कानपुर फर्टिलाइजर प्लांट का इतिहास

1967 से 2025 तक कानपुर फर्टिलाइजर प्लांट का इतिहास

स्थापना और स्वर्णिम दौर (1967-1990)

  • 1967: इंडियन एक्सप्लोसिव्स लिमिटेड (IEL) ने पनकी, कानपुर में प्लांट स्थापित किया।
  • 1970s: “चांद छाप यूरिया” लॉन्च, उत्तर भारत के किसानों का पसंदीदा बना।
  • 1980s: प्रतिदिन 2100 MT उत्पादन क्षमता हासिल की।
  • 1991: उदारीकरण के बाद सरकारी समर्थन घटा।

यह प्लांट शुरू में नाप्था आधारित था और ‘चांद छाप’ यूरिया के नाम से मशहूर हुआ।

संकट और पुनर्जन्म (1991-2012)

  • 2002: पहली बार बंद हुआ, 90 करोड़ रुपये का कर्मचारी बकाया।
  • 2012: जेपी एसोसिएट्स ग्रुप ने 1500 करोड़ रुपये निवेश कर पुनर्जनन किया।
  • 2015: “भारत छाप यूरिया” लॉन्च, प्राकृतिक गैस पर स्विच।

90 के दशक में डंकन इंडस्ट्रीज के तहत यह संकट में आया और 2002 में बंद हो गया। 2012-2015 में जेपी ग्रुप ने इसे पुनर्जनन किया, नाप्था को प्राकृतिक गैस में बदला, और 90 करोड़ रुपये का बकाया चुकाया। इसके बाद यह 90% क्षमता पर चलने लगा, प्रतिदिन 2100 मीट्रिक टन यूरिया उत्पादन करता था।

2016-2024: उतार-चढ़ाव

पिछले 10 सालों में प्लांट ने गेल को 17,000 करोड़ रुपये (250 करोड़ ब्याज सहित) का भुगतान किया। यह रबी और खरीफ फसलों के लिए यूरिया आपूर्ति करता था। लेकिन दिसंबर 2024 में गेल ने 538 करोड़ रुपये के भुगतान के बावजूद गैस आपूर्ति बंद कर दी, जिससे 18 दिसंबर से उत्पादन ठप हो गया। मार्च 2025 में केस्को ने बिजली काटने की धमकी दी और 115 करोड़ रुपये भुगतान के बाद भी संकट टला नहीं।

2025: अंतिम संकट और बंदी

  • गैस संकट: गेल ने 538 करोड़ के बाद 120 करोड़ अतिरिक्त मांगे।
  • बिजली विवाद: केस्को ने 12 और 26 मार्च 2025 को उत्पादन रोका।
  • सरकारी उपेक्षा: 2013 से यूरिया लागत (₹3326/MT) स्थिर, 92% मुद्रास्फीति के बावजूद सब्सिडी नहीं बढ़ी।

“हमने हर संभव कोशिश की। गेल को 538 करोड़ और केस्को को 115 करोड़ रुपये का भुगतान किया, लेकिन हालात नहीं सुधरे। 18 दिसंबर 2024 से प्लांट बंद होने के कारण 1.10 लाख टन यूरिया का उत्पादन रुक गया, जिससे 110 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।”

– मेजर जनरल विनोद कुमार (कंपनी के निदेशक)

सियासी वादों का इतिहास

1980 से हर चुनाव में कानपुर के विकास का वादा किया गया। 1980 में आरिफ मोहम्मद खान, 1984 में नरेश चंद्र चतुर्वेदी और 1989 में सुभाषिनी अली ने जीत हासिल की, लेकिन मिलों की तालाबंदी नहीं टूटी। 1991 से 1999 तक बीजेपी के जगतवीर सिंह द्रोण ने हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण से जीत हासिल की। लेकिन इस दौर में भी कोई ठोस बदलाव नहीं आया।

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1999 में कांग्रेस के श्रीप्रकाश जायसवाल ने सांसद के रूप में जीत हासिल की और बाद में मनमोहन सिंह सरकार में कोयला मंत्री बने। श्रीप्रकाश जायसवाल ने कानपुर के लिए उल्लेखनीय प्रयास किए। उनकी पहल से कई बंद मिलों और कंपनियों को फिर से शुरू करने की कोशिश हुई, और कुछ तालाबंदियाँ टूटीं। उनकी मेहनत की देन थी कि तालाबंदी के बाद कई कंपनियाँ चालू हो सकीं। हालाँकि, प्रशासनिक भ्रष्टाचार और सरकारी उदासीनता ने उनके प्रयासों को पूरी तरह सफल नहीं होने दिया। फिर भी, कानपुर के लिए उनके योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

चांद छाप यूरिया: एक विरासत का अंत

  • 1967-2002: 35 साल तक चला प्रतिष्ठित ब्रांड।
  • विशेषता: 46.4% नाइट्रोजन, किसानों का विश्वास।
  • 2012-2025: भारत छाप यूरिया लॉन्च, लेकिन पहचान न बना सका।

7000 परिवारों पर संकट

  • कर्मचारी: स्थायी 1400, ठेका 2600, अप्रत्यक्ष 3000+।
  • वेतन: तकनीशियन ₹25,000-40,000/माह, श्रमिक ₹15,000-22,000/माह।

भविष्य की आशंकाएँ

  • पर्यावरण: 58 साल पुराने प्लांट में 5000+ टन केमिकल स्टॉक का निस्तारण।
  • कृषि: पश्चिमी UP और MP में यूरिया किल्लत की आशंका।
  • आर्थिक: क्षेत्र को सालाना 1200 करोड़ रुपये का नुकसान।

कहाँ हुई चूक?

  • सरकारी नीति: 2017 के नैनो यूरिया प्रोत्साहन ने पारंपरिक यूरिया को नजरअंदाज किया।
  • प्रबंधन: 2022-24 में 45% कच्चा माल आयात पर निर्भरता, ऊर्जा दक्षता में 15% पिछड़ापन।

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एक युग का अंत

57 साल के इतिहास में इस प्लांट ने 48 लाख टन यूरिया बनाया, 2 लाख+ किसान परिवारों को सहारा दिया, और 17,000 करोड़ रुपये का राजस्व सृजित किया। लेकिन सरकारी उदासीनता, कॉर्पोरेट लालच और नीतिगत विफलताओं ने इस विरासत को धराशायी कर दिया। यह कानपुर के औद्योगिक इतिहास का काला अध्याय बन गया।

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