पटना: देश से आपातकाल हटे महज 64 दिन ही हुए थे। साल 1977 था और तारीख थी 24 मई। केंद्र में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार, मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री और बिहार में राष्ट्रपति शासन। ऐसे में बिहार के एक छोटे से गाँव बेलछी में वह घटना घटी जिसने न सिर्फ राज्य बल्कि देश की राजनीति का नक्शा ही बदल कर रख दिया। यह कहानी है बेलछी नरसंहार की, जो भारत के इतिहास में एक काले अध्याय के तौर पर दर्ज है।
वह सुबह जब शुरू हुआ कहर
उस दिन सुबह-सुबह गाँव के दबंग महावीर महतो ने अपने भतीजे मंगरू को आदेश दिया, “जाओ, सिंघवा को बुला लाओ।” सिंघवा, एक दलित नेता, जो महावीर की दबंगई के खिलाफ आवाज उठाता था। सिंघवा की पत्नी ने मना किया, लेकिन वह चला गया। यह उसकी आखिरी यात्रा थी।
महावीर और उसके 30-35 साथियों ने सिंघवा को घेर लिया। लाठी-डंडों से पीटा और फिर उसे और उसके साथियों को बंधक बना लिया। जो लोग बचाव के लिए पहुंचे, उन पर महावीर के लोगों ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी।
खेत में सजी चिता और नृशंस हत्या
पीड़ितों को गाँव के बाहर मक्के के एक खेत में ले जाया गया, जहाँ पहले से ही एक विशाल चिता सजाकर रखी गई थी। केरोसिन डालकर आग लगा दी गई। महावीर और उसके सहयोगी परशुराम धानुक ने बंदूकों से 11 लोगों को गोलियों से भून डाला। जो बचे, उन्हें जिंदा आग में झोंक दिया गया। एक 12 साल के लड़के को, जो बार-बार आग से निकल भागता था, गड़ासे से मार डाला गया।
इस बेलछी नरसंहार में 8 दलित और 3 सुनार समुदाय के लोग मारे गए।
पुलिस की देरी और सियासी रवैया
खबर मिलने पर भी पुलिस तुरंत नहीं पहुंची। थाना प्रभारी की जीप का ब्रेक ‘फेल’ हो गया और दूसरे थाने ने मदद से इनकार कर दिया। शाम तक पहुंची पुलिस ने इसे ‘गैंगवार’ बताने की कोशिश की, जबकि दलित नेता और वामपंथी दल इसे साफ तौर पर जातीय नरसंहार करार दे रहे थे।
रामविलास पासवान ने संसद में दिखाईं अधजली हड्डियाँ
केस ने तब राष्ट्रीय सुर्खियाँ बटोरीं जब तत्कालीन सांसद रामविलास पासवान ने 13 जुलाई, 1977 को लोकसभा में जोरदार भाषण देते हुए एक पोटली खोली, जिसमें बेलछी नरसंहार के पीड़ितों की अधजली हड्डियाँ थीं। उन्होंने गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह के रुख की कड़ी आलोचना की।
इंदिरा गांधी का हाथी पर सवार होकर पहुंचना और सियासी पलटवार
इमरजेंसी के बाद सियासी रेगिस्तान में खो चुकी इंदिरा गांधी को इस घटना में एक मौका दिखा। 13 अगस्त, 1977 को भारी बारिश और बाढ़ के बावजूद, वह बेलछी पहुँचीं। कार और जीप के फंसने के बाद उन्होंने एक हाथी पर सवार होकर, नदी पार करके गाँव तक का सफर तय किया।
पीड़ित परिवारों से मिलीं, उनकी बातें सुनीं और उनकी मांगों वाली चिट्ठियाँ अपनी साड़ी के आँचल में संभालीं। अगले दिन अखबारों में छपी हाथी पर सवार इंदिरा की तस्वीर ने उनकी ‘लौह महिला’ की छवि को एक ‘सहृदय माँ’ के रूप में बदल दिया। बिहार में गूंज उठा नारा – “इंदिरा तेरे अभाव में, हरिजन मारे जाते हैं।”
बेलछी नरसंहार का राजनीतिक भूचाल
इस एक घटना ने कई राजनीतिक करियर की दिशा तय की:
- इंदिरा गांधी: इस यात्रा ने उनकी सियासी वापसी की नींव रखी और 1980 में वह फिर से प्रधानमंत्री बनीं।
- नीतीश कुमार: उस समय युवा नेता नीतीश कुमार, जो उसी कुर्मी समुदाय से ताल्लुक रखते थे जिस पर आरोप लगे थे, अपनी पहली चुनावी लड़ाई हार गए। यह हार उनके लिए इतनी मारक थी कि उन्होंने कुछ समय के लिए राजनीति छोड़ने का मन बना लिया था।
- कर्पूरी ठाकुर: दबाव में आकर तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने अप्रैल 1978 में OBCs के लिए 26% आरक्षण लागू किया, जिसके चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
न्याय की लंबी डगर
आखिरकार, मई 1980 में पटना की एक अदालत ने मुख्य आरोपी महावीर महतो और परशुराम धानुक को फांसी की सजा सुनाई। उच्च न्यायालय और फिर सुप्रीम कोर्ट ने भी इस सजा को बरकरार रखा। नवंबर 1983 में दोनों को भागलपुर जेल में फांसी पर चढ़ा दिया गया।
एक क्रूर विरासत
बेलछी नरसंहार सिर्फ एक घटना नहीं थी, यह बिहार में जातिगत हिंसा और राजनीति के एक नए युग का सूत्रपात था। इसने साबित कर दिया कि सामाजिक न्याय और जातिगत गौरव की लड़ाई कितनी कठिन और स्याह हो सकती है। यह वह घटना है जिसकी यादें आज भी बिहार की सामूहिक स्मृति में जलती हुई चिता की तरह ताजा हैं।
(यह लेख ऐतिहासिक दस्तावेजों, अखबारी रिपोर्ट्स और जानकारों से बातचीत पर आधारित है।)
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